Tuesday, March 10, 2009

जैसा संग वैसा रंग।

आसुमल पहले जब घर में थे तब व्यक्तियों के स्पंदनों का खूब अभ्यास किया। अकेले साधना करते तब साधना ही अच्छी लगती। जाकर दुकान पर बैठते तो भाई साहब की बात ठीक लगती। वे कहतेः 'फलाना आदमी बड़ा सेठ हो गया, धनी हो गया। भाई ! तू सुधर। सुबह चार बजे उठता है फिर भी बारह बजे दुकान पर नहीं पहुँचता है? तू मेरा साथ दे तो हम उन लोगों से आगे निकल सकते हैं।'
दुकान पर बैठता तो भाई की बात ठीक लगती। कहीं किसी आश्रम में जाता, सत्संग सुनता तो सत्संग की बातें अच्छी लगतीं। जैसों के संपर्क में आता था वैसा ठीक लगता था। पानी का रंग कैसा? जिसमें मिलाओ तैसा। जैसा संग करते हो वैसा रंग लग जाता है। आप मांसाहारी, दुराचारी का संग करो, कुछ दिन उनकी बातचीत में रूचि रखो तो आपको लगेगा कि मांस खाने में कोई आपत्ति नहीं है। भगवान ने खाने के लिए ही मांस बनाया है।
आप जैसा संग करेंगे वैसी आपकी रूचि बन जायेगी और उस रूचि को तृप्त करने के लिए बुद्धि तर्क दे देगी। नेताओं का संग करोगे तो जगत को सुधारने के विचार आ जायेंगे। जगत तो सुधरे या न सुधरे लेकिन अहंकार की सजावट तो हो ही जायेगी। आप साधकों का संग करोगे तो आपमें साधक की नम्रता आ जायेगी। भक्तों का संग होगा तो आप वृन्दावन में जाओगे और कुछ ही दिनों में 'राधे.... राधे...' करने लग जाओगे। गंगा किनारे जाओगे तो 'गंगे हर....' बोलने लगोगे और नर्मदा किनारे जाकर 'नर्मदे हर....' पुकारकर जल में गोता मारोगे।
सिनेमा देखने वाले युवक घर में भी ऐसी अदायें करने लगते हैं। सिनेमा का पोस्टर देखकर उस प्रकार के विचार आने लगते हैं। पर्दे पर दिखनेवाली अदायें वास्तविक नहीं हैं। निर्जीव फिल्म की पट्टियों और प्रकाश की यह करामात है। ऐसे निर्जीव चित्रों को देखकर भी लोग उस प्रकार के जीवन में ढल जाते हैं। कोई जिन्दे सदगुरु अगर मिल जायें और उनके हाव-भाव, निःसंगता, निर्लेपता, सरलता, स्वाभाविकता, निर्दोषता, प्रसन्नता, निजानन्द की मस्ती आदि आदि हम देखें, उनकी अमृतवाणी सुनें और उस प्रकार हमारा जीवन भी ढलने लगे तो परम सौभाग्य है। ज्ञानी महापुरुष के संग में आकर हमें भी लगता है कि जीवन में ज्ञान तो पाना चाहिए, आत्म-साक्षात्कार तो करना चाहिए। जैसा संग वैसा रंग।

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